गुज़रे महीनो मे कई दफा सोचा की कुछ लिखता हूँ
पर सच कहूं तो ये सोच कर नही लिखा की
इस बडबड को क्या नाम दूंगा दूंगा
और इतेफाक देखिये आज लिखा भी तो क्या बडबड है
ख़ुशी मेरे अल्फाजों मे बयान नही होती
मेरा ताल्लुक तो हमेशा गम और आंसुओं को जुबान देने से रहा है
और दुःख कोई ऐसा महसूश नही होता अब
सच ही है MACHINES को कुछ महसूस ही कहा होता है
कुछ चूका हुआ सा महसूस करता हूँ आजकल
कुछ खोया खोया खोया, थोडा सा बेसुध भी
जैसे ज़िन्दगी के पहाड़े भूल गया हूँ और
बस घुटी घटी सी धुन याद है उनकी
जब कोई सवालात करता है
5 एकुम 5 ,5 दूनी दस और उसके बाद
बस एक रटी रटाई धुन में शुरू हो जाता हूँ
कई मरतबा तो ये नही समझ आता की
धोखा खुद को दे रहा हूँ या उससे जिसने सवाल किया था
सोचा था की जब खुद के पैसे होंगे तो बहुत ऐश करूँगा
सारे सपने पूरे करूँगा अपने
कमबख्त इस नौकरी मे तो सोने का भी वक़्त नही मिलता
सपने तो छोडो , जरूरते भी आजकल पूरी नही होती
कभी कभी लगता है की अँधेरी सुरंग मे दौड़ रहा हूँ
वापस जा नही सकता क्योकि जिससे भागना शुरू किया था
वो डर वो हौवा अभी भी वही होगा
और आगे तो खैर अँधेरा ही हैं
अब तो पाँव भी दुखने लगे है
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