अजनबी शहर की कुछ अपनी सी यादे साथ है
कुछ दूर होके पास है कुछ पास होके दूर है
अजीब सफ़र है अब ये ज़िन्दगी का यारो
समझ नही आता मंजिल गलत है या रास्ता गलत है
पहले टेंशन की भी टेंशन न थी
अब बेवजह भी अक्सर सर दुखाते है
दिल रोता है अभी भी मेरा अक्सर
पर न जाने क्यों ये लब मुस्कुराते है
डरता था बड़े शहरों की ज़िन्दगी से मै
अब और सहमा सहमा सा रहता हूँ
तलाशता हूँ अपना जब कभी यहाँ मै
भीड़ इस शहर की रूठी रूठी लगती है
ख्वाहिशे अपनों की अब दिल कर भी नही सकता
ये ख्वाहिशे भी अब बेमानी सी लगती है
---- प्रियदर्शी
1 comment:
So true! Sometimes I feel the same. tension ki bhi tension nahi thi. par sach bataun......I had this condition when I was in big city!
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