Sunday, January 10

परिया





 (अपनी लिखे लफ्जो के पुलिंदों मे से कोई एक अगर चुनने को कहा जाए तो मे इस को चुनुँगा ,"परिया" मेरे दिल के बहुत पास है !)

बचपन मे माँ कहानी कहती थी
कहती थी वो दास्तान परियो की
वो प्यारी बाते उनके जादू की
बाते पल मे सब कुछ बदलने की
बाते उस छड़ी की जो चलती थी
और इंसा को जानवर मैं बदल देती थी

उम्र बीत गयी वो परिया ढूँढने मे
उस जादू को समझने मे
फिर लगा एक दिन धत
पगले वो कहानी ही तो थी

फिर एक दिन तुम मिली जैसे
दूर किसी पर्वत के पीछे कोई रौशनी चमकी हो
जैसे काले बादलो के बीच बिजली कडकी हो
जैसे पतझड़ के बाद कोई हवा सी महकी हो
जैसे जैसे किसी परी की छड़ी फिर घूमी हो

उस पल ना जाने क्यों लगा
पगले परियां सचमुच होती है
बस उनके सुनहरे पंख खो से गए है
उनकी वो छड़ी हँसी मे छुप सी गयी है
पर परियां सचमुच होती है

तुम आई उस पल मेरी जिंदगी मे जब
वक़्त की काली स्याही घेरे हुए थी मुझे
मैं खोता जा रहा था अँधेरे मे कहीं
सोता जा रहा था निराशा के गर्त मैं
जिंदगी बस दम तोड़ने को थी मौत के आगोश मैं

तेरे वो शब्द थे की थी कोई जादू की छड़ी
भाई जिंदगी बाकी है अभी 'किसी' के सपने तुझ पर टिके है अभी
भाई ज़िन्दगी बाकी है अभी

शब्द वही थे वाक्य भी सुने सुनाये थे
फिर क्या जादू था उनमे की मुझे जीना सीखा गए
शायद किसी परी का जादू था वो

निराशाए आज भी है संघर्ष कल भी होगा
पर फिर क्यों लगता है वक़्त फिर बदलेगा
क्योंकि पगले परिया सचमुच होती हैं
---प्रियदर्शी

1 comment:

aparna Mudi said...

beautiful poetry priyadarshi...
i especially liked this one

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